कश्मीरी पंडित कांड Date ? क्या है कश्मीरी पंडितों के नरसंहार और पलायन का सच? कश्मीरी पंडित कांड कब हुआ? क्यों हुआ? क्या हुआ? कितना हुआ? यहाँ पढ़े वो सबकुछ जो आप जानना चाहते है।।
नई दिल्ली : जनवरी 1990 से लेकर अप्रैल 1990 के बीच हुवे कश्मीरी पंडितों का नरसंहार और पलायन एक दागदार हिस्सा है हमारे अतीत का जो हिंदुस्तान की कौमी एकता के डफली पर एक साथ कई छेद करता है।
यह क्यों हुआ? इसकी पृष्टभूमि क्या थी? क्यों सदियों से साथ रहते आ रहे कश्मीरी पंडित मुसलमानों के दुश्मन हो गए इस पर आज भी कई बातें की जाती है।
यह लेख सिर्फ सच बताने के लिए लिखी जा रही। मजहबी चश्मे से न देखकर आँकड़े और वस्तुस्थिति को बिना मिर्च मसाला लगाए इस गंभीर विषय पर लिखना एक शानदार स्वाद को न कहने की तरह है जिसका लालच लेखक छोड़ चुका है।
क्या थी इस भयानक हादसे की पृष्ठभूमि?
1990 में घटी इस घटना की पृष्ठभूमि 10 वर्ष पूर्व ही 1980 से तैयार होने लगा था। नेशनल कॉन्फ्रेंस (NC) के सर्वोच्च नेता शेख अब्दुल्लाह (SHEIKH ABDULLAH) के 1982 में हुई मृत्यु के बाद पार्टी की कमान उनके बेटे फ़ारूक़ अब्दुल्लाह के हाथों आ जाती है। फ़ारूक़ 1983 में हुई चुनाव को जीत कर जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री बनते है, लेकिन 2 साल के कार्यकाल के भीतर ही केंद्र की राजीव गाँधी सरकार (CONGRESS) नेशनल कॉन्फ्रेंस के ही एक मातहत गुलाम मुहहमद शाह (GULAM MUHHAMAD SHAH) जो कि फ़ारूक़ अब्दुल्लाह के नीचे थे उन्हें नेशनल कॉन्फ्रेंस से तोड़ कर मुख्यमंत्री बना देती है।
केंद्र के इस फैसले का घाटी में विरोध होता है और फिर यहीं से राजनीतिक अस्थिरता शुरू होती है।
जम्मू कश्मीर का एक मिलिटेंट ग्रुप “ JAMMU KASHMIR LIBERATION FRONT (JKLF)” अपने आंतक के कारनामो में इजाफा करता है और फिर उनके इरादों को और ताक़त देती है। उनके एक मिलिटेंट नेता मक़बूल भट्ट (MAQBOOL BHATT) की फाँसी जिसे 1984 में हाइकोर्ट के फैसला के बाद दिया जाता है।
यह सब चल ही रहा होता कि 1986 में राजीव गाँधी “शाह बानो” मामले से लगे तुष्टिकरण के तोहमत को मिटाने के लिए बाबरी मस्जिद के ताले हिन्दुओ के लिए खुलवाने के फैसला करते है और इस फैसले का एक आक्रमक विरोध कश्मीर घाटी में दिखना शुरू होता है।
फिर “अनंतनाग” जो तब काँग्रेसी नेता मुफ़्ती मुहहमद सईद ( MUFTI MUHHAMAD SAYEED) की लोकसभा थी में हिन्दू मंदिर, हिन्दू दुकान और हिन्दू प्रॉपर्टी को एक एक कर निशाना बनाया जाने लगता है।
राजीव गाँधी की सरकार इतना कुछ नही झेल पाती है और फिर शाह की सरकार गिराकर फ़ारूक़ अब्दुल्लाह की सरकार बना देती है।
1987 में फिर से फरक़्क़ अब्दुल्लाह मुख्यमंत्री चुनकर आते है । लेकिन तब तक कश्मीर के मिलिटेंट ग्रुप्स अपनी पकड़ मजबूत कर चुके होते है।
1989 में JKLF के द्वारा मुफ़्ती सैय्यद की बेटी का अपहरण आगे होने वाले हादसों की नई पटकथा का पहला पन्ना होता है।
इसके बाद पंडितो को निशाना बनाया जाने लगता है।
सबसे पहले घाटी के बीजेपी नेता टीका लाल टपलू को 13 सितंबर 1989 में गोली मारकर हत्या की जाती है। 2 माह भी नही पूरे होते है और चार नवंबर को रिटायर्ड जज “नीलकंठ गंजू” को श्रीनगर के जम्मू कश्मीर हाई कॉर्ट परिसर में ही गोली मार कर हत्या की जाती है। यह वही जज थे जिन्होंने मिलिटेंट नेता मक़बूल भट्ट को फाँसी की सजा सुनाई थी। दिसंबर 7 को अगला निशाना बनाये जाते है “प्रेम नाथ भट्ट”। इसके साथ ही शुरू होता है पंडितो के नाम हिट लिस्ट जारी कर खुले आम मारने की धमक देना और फिर इस धमकी को लोकल अखबारों में भी हिजबुल मुज्जहुद्दीन के द्वारा दिया जाने लगता है। हिजबुल अखबारों के माध्यम से घाटी छोड़ देने के लिए कहते है।
क्या हुआ 19 जनवरी 1990 की उस काली रात में?
इतना कुछ होते देख राजीव गाँधी की सरकार फिर एकबार हरकत में आती है और फ़ारूक़ अब्दुल्लाह की सरकार को निरस्त कर घाटी में राष्ट्रपति शासन लगा देती है।
मस्जिदों के लाउडस्पीकर से अजान की जगह हिन्दुओ के नाम धमकियां सुनाई देने लगती है। सड़को पर अलगाववादी हिन्दुओ को घाटी छोड़ने की बात कहने लगते है और भयाक्रांत कश्मीरी पंडित आख़िरखर अपना घर छोड़ भागने के फैसले को मजबूर हो जाते है।
20 जनवरी 1990 को पलायन करने वाले कश्मीरी पंडितो का पहला जत्था निकलता है।
गौड़ाकल ब्रिज नरसंहार
अक्सर कश्मीरी पंडित पलायन पर बात करते समय हम इस नरसंहार को भूल जाते है जो पहले जत्थे के निकलने के अगले ही दिन गौड़ाकल पुल पर घटित होता है। इसकी गिनती कश्मीर में सबसे बुरे नरसंहारों में की जाती है। जिसमे करीब 160 कश्मीरी मुसलमान जो आंदोलन कर रहे होते है उन्हें सीआरपीएफ के द्वारा भून दिया जाता है।
मात्र 48 घण्टे में घटी ये दो घटनाये हिन्दू मुसलमानों के मन में इतना नफरत भर देती है कि कोई किसी के दर्द को समझना नही चाहता था।
क्या कहते है आंकड़े?
उस हादसे से हुवे नरसंहार और पलायन को लेकर कई आँकड़े है। लेकिन अगर विश्वसनीय आँकड़ो की बात करे तो कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अनुसार जनवरी 1990 तक घाटी में 75,343 कश्मीरी परिवार रहते थे। 1990 -1992 के बीच तकरीबन 70,000 परिवारों का यहां से पलायन हुआ है। यह पलायन 2000 तक जारी रहा।
अगर नरसंहार के आँकड़े देखे जाए तो समिति के अनुसार मिलिटेंट के द्वारा 1990- 2011 तक 399 कश्मीरी पंडितों की जान ली गई है। जिनमे अधिकतर 1989-90 के बीच हुई।
800 परिवार अभी भी घाटी में रहते है।
क्या थी प्रशासन की भूमिका?
प्रशासन की भूमिका की बात करे तो इस मामले में वो बहुत निराशाजनक थी। जिस 19जनवरी1990 की रात पहली बार कश्मीरी पंडितो का पलायन होता है उसी दिन “जगमोहन” वहाँ केंद्र सरकार द्वारा राज्यपाल बनाकर भेजे जाते है।
एक मुसलमान पुलिस अधिकारी वजाहत हबीबुल्लाह के अनुसार जगमोहन पंडितो को रोकने के बजाय उन्हें निकल जाने को लेकर वाहन, रहने को रिफ्यूजी कैम्प और घाटी छोड़ने वाले सरकारी कर्मचारियों को बिना नौकरी के वेतन की व्यवस्था करते है।
पलायन करने वाले कश्मीरी पंडित आज कहाँ है?

अधिकतर पंडित सामान्य आर्थिक स्तिथि वाले थे तो उन्होंने अपने गुजर बसर के लिए दिल्ली, पुणे मुम्बई, अहमदाबाद, लखनऊ और विदेश को चुना।
कुछ को सरकारों ने 2 कमरों वाला एक टाउनशिप जिसे जुगति कहते है ,जम्मुकश्मीर में बना कर दिया।
कई परिवार ऐसे थे जो पुरखु में सरकारी टेन्मेंट जो जम्मूकश्मीर के बाहर नागरौता और मुथी में बने है में रहने लगे।
कुछ आज रेंट में बाहर रहते है या अपना घर बना लिया है।
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